राक्षस के नाम पर शहर, जिसे आज भी हर दिन चाहिए एक लाश! इंदौर की महारानी ने बनवाया, जयपुर के कारीगरों ने बनाया: बिहार का वो मंदिर जिसका काशी की तरह होगा विकास
भारत सरकार ने बजट 2024 में देश के विभिन्न पर्यटन एवं तीर्थ स्थलों के विकास का भी ऐलान किया है। हमने देखा कि कैसे मध्य प्रदेश के उज्जैन में महाकाल कॉरिडोर और उत्तर प्रदेश के काशी में विश्वनाथ कॉरिडोर मोदी सरकार ने बनवाया। असम में कामाख्या कॉरिडोर की तैयारी चल रही है। अब केंद्रीय वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने घोषणा की है कि गया के विष्णुपद मंदिर विश्वस्तरीय तीर्थस्थल और पर्यटन गंतव्य के रूप में विकसित किया जाएगा। काशी की तर्ज पर ही इसका विकास किया जाएगा।
गया के विष्णुपद मंदिर का एक प्राचीन इतिहास है। मंदिर के जिस मौजूदा स्वरूप को हम देखते हैं, उसका निर्माण 18वीं शताब्दी में इंदौर की मराठा महारानी अहिल्याबाई होल्कर ने करवाया था। ये फाल्गुनी नदी के तट पर स्थित है। गया पवित्र बौद्ध स्थल महाबोधि मंदिर के लिए भी लोकप्रिय है, उसका भी इसी तर्ज पर विकास किया जाएगा। गया को पिंडदान के लिए जाना जाता है, अपने पुरखों के मोक्ष के लिए यहाँ पिंडदान की प्रक्रिया पूरी कराई जाती है।
विष्णुपद मंदिर में पत्थर पर भगवान श्रीहरि के दाहिने पाँव का चिह्न अंकित है, जिसे हम धर्मशिला के रूप में जानते हैं। वैशाली से प्राप्त टेराकोटा की प्राचीन लिखावट से पता चलता है कि विष्णुपद मंदिर चौथी शताब्दी में भी अस्तित्व में था। बताया जाता है कि अहिल्याबाई होल्कर द्वारा इस मंदिर के निर्माण कार्य में 12 वर्ष लगे थे, साथ ही 3 लाख रुपए का व्यय भी हुआ था। राजस्थान के जयपुर की स्थापत्य कला का भी यहाँ दर्शन होता है, इसका भी एक विशेष कारण है।
राजस्थान के जयपुर से महारानी अहिल्याबाई होल्कर 1000 पाषाण शिल्पियों को गया लेकर आई थीं, जिन्होंने मंदिर का निर्माण किया। इनमें से कई वापस लौट गए तो कई वहीं बस गए, जो आज भी पाषाण शिल्प के काम में जुटे हुए हैं। पत्थरकट्टी गाँव के भगवानदास गौड़ के बेटे रामचंद्र गौड़ इसका ही एक उदाहरण हैं। इन्होंने ही बुद्ध स्मृति पार्क में महात्मा बुद्ध की 12 फ़ीट ऊँची काले पत्थर की प्रतिमा बनाई थी, जिसका अनावरण दलाई लामा ने किया था।
ताम्बड़ा पत्थर को तराश कर विष्णुपद मंदिर का निर्माण किया गया था। ये काफी कठोर शिला होती है जिस पर काम करना मुश्किल होता है। कहते हैं कि चैतन्य महाप्रभु किशोरावस्था में ही इस मंदिर में पहुँचे थे, जहाँ उन्हें ईश्वर पुरी द्वारा दीक्षित किया गया था। पश्चिम बंगाल के नवद्वीप स्थित मायापुर में जन्मे चैतन्य महाप्रभु अपने पिता जगन्नाथ मिश्रा के पिंडदान के लिए गया आए थे। उन्होंने वहाँ 17 स्थानों पर पिंडदान किया। गया दर्शन के बाद ही उन्होंने संकीर्तन अभियान शुरू किया।
17 मार्च, 2023 को मंदिर से कुछ ही दूरी पर ISKCON संस्था ने चैतन्य महाप्रभु के पदचिह्न का अनावरण किया। इसके लिए 2300 स्क्वायर फ़ीट में निर्माण कार्य किया गया। इसका कलश, ध्वज और ध्वजस्तंभ सोने का बना हुआ है। बालगोविंद सेन नामक भक्त ने स्वर्णध्वज दान में दिया था। किवाड़ों में भी चाँदी के पत्थर लगे हैं। यहाँ काले पत्थर से बना हुआ 16 वेदियों का मंडप भी है। यहाँ सभा-मंडप की छत से पानी भी टपकता है। मलयागिरि चन्दन से प्रतिदिन श्रीहरि के पदचिह्न का शृंगार होता है, उस पर शंख, चक्र, गदा एवं पद्म अंकित किए जाते हैं।
इस मंदिर का इतिहास गयासुर नामक राक्षस से जुड़ा है, जिसके लिए भगवान विष्णु को यहाँ आना पड़ा था। इसीलिए इस जगह का नाम भी गया है। मान्यता है कि गयासुर के शरीर पर ही ये नगर बसा हुआ है। ‘वायु पुराण’ की मानें तो गयासुर ने कई वर्षों तक साँस रोक कर भगवान विष्णु की तपस्या की थी, जिससे देवता भयभीत हो गए थे। उसने खुद के सबसे पवित्र होने का वरदान माँगा, जिसके बाद उसके दर्शन से सभी को मोक्ष मिलने लगा। अंत में ब्रह्मा के नेतृत्व में देवताओं ने उसका शरीर यज्ञ के लिए माँगा।
यज्ञ संपन्न होने के पश्चात इस जगह के अति-पवित्र होने का वरदान ब्रह्मा जी ने दिया। कहा जाता है कि धर्मराज युधिष्ठिर ने भी यहाँ अपने पिता पाण्डु का पिंडदान किया था। गया का वैदिक नाम ब्रह्मगया भी बताया गया है। गया शहर ब्रह्मयोनि पहाड़ियों से घिरा हुआ है। राजर्षि गय को भी इस नगर का संस्थापक बताया गया है, जिन्होंने यहाँ विशाल यज्ञ किया था। वो सूर्य के पौत्र थे। माँ सीता से भी इस जगह का इतिहास जुड़ा है। लोग गया को ‘गयाजी’ भी कहते हैं।
इस दौरान एक और रोचक तथ्य का जिक्र करना आवश्यक है। लोककथाओं की मानें तो गयासुर ने भगवान विष्णु से प्रतिदिन एक मुंड और एक पिंड का वरदान माँगा है। कोरोना महामारी के दौरान भी पंडों ने सुनिश्चित किया कि ये प्रथा टूटने न पाए। कोरोना के दौरान एक बार जब श्मशान घाट में कोई भी शव नहीं जला तो डोमराजा के नेतृत्व में एक पुतले को बाँध कर उसका प्रतीकात्मक अंतिम संस्कार किया गया। माना जाता है कि जिस दिन ये परंपरा पूरी नहीं की, उस दिन गयासुर जग जाएगा।
गया शहर में बचपन गुजारने वाले लोग भी बताते हैं कि पूर्व में जब किसी दिन किसी शव का अंतिम संस्कार नहीं होता था तो ‘डमी लाश’ की शवयात्रा निकाली जाती थी। स्थानीय लोगों में इस परंपरा को लेकर काफी आस्था है। धार्मिक मंत्रों के साथ नकली लाश का ही अंतिम संस्कार कर दिया जाता है, अगर किसी दिन एक भी शव नहीं जला तो। फल्गु नदी की धारा भी रेत के नीचे से ही बहती है। पिंडदान के दौरान बालू हटाने पर पानी निकलता है। वहाँ स्थित अक्षय-वट के बारे में बताया जाता है कि ये हजारों वर्ष पुराना है।
माँ सीता ने भी यहाँ पिंडदान की प्रक्रिया पूरी की थी। विष्णुपद मंदिर स्थित धर्मशिला ने बारे में बताया जाता है कि इसे स्वर्ग से लाया गया था। कथा ये भी है कि गयासुर ने जब देवताओं को परेशान करना शुरू कर दिया था तो भगवान विष्णु उनके अनुरोध पर उसका वध करने आए, फिर उन्होंने उसके शरीर को जमीन के नीचे दबा दिया। मरते समय उसने इस स्थल के पवित्र होने का वरदान माँगा। यहाँ बालू से पिंडदान की प्रथा है, जो माँ सीता के साथ शुरू हुई बताई जाती है।
भगवान विष्णु का पदचिह्न 13 इंच का है। 30 मीटर ऊँची ये अष्टभुजी मंदिर के निर्माण के लिए अतरी प्रखंड के पत्थरकटी से काला पत्थर लाया गया था। इसके सभा-मंडप में 44 स्तंभ हैं। मंदिर का मंडप 58 वर्गफुट के घेरे में है। 8 पंक्तियों में 4-4 संयुक्त स्तंभों पर ये मंदिर टिका हुआ है। गर्भगृह में 50 किलो चाँदी का छत्र और 50 किलो चाँदी का अष्टपहल है। मंदिर के निर्माण का वर्ष सन् 1787 बताया जाता है। मंदिर में लेटी हुई सद्योजात (देवी पार्वती) की एक दुर्लभ प्रतिमा भी है, जिनके गर्भनाल से गणेश जी जुड़े हुए दिखाए गए हैं।
बिहार सरकार ने इस मंदिर को ‘सुरक्षित घोषित स्मारक’ की सूची में रखा हुआ है। सितंबर-अक्टूबर के महीनों में हर साल पिंडदानियों की संख्या बढ़ जाती है। विष्णुपद मंदिर का इंदौर-जयपुर से कनेक्शन है ही, गया में अंतरराष्ट्रीय कनेक्शन भी देखने को मिलता है। यहाँ चीन से लेकर श्रीलंका तक के बौद्ध श्रद्धालु आते हैं। श्रीलंका के शासक मेधवर्मन ने यहाँ एक विहार का निर्माण करवाया था। गुप्त एवं कुषाण काल के निर्माण कार्य भी यहाँ देखने को मिलते हैं। अब यहाँ कॉरिडोर बनने से तीर्थयात्रियों को अच्छी सुविधाएँ मिलेंगी।
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