बैसाखी पर क्यों मांगी थी गुरु गोबिंद ने अपनों की कुर्बानी? जानें क्या कहता है सिख इतिहास
सिख धर्म के लोगों के लिए बैसाखी खुशियों का पर्व है। पंजाब और देश-दुनिया में रह रहे सभी पंजाबियों के लिए बैसाखी खुशियां और उत्साह लेकर आती है। धार्मिक रूप से भी यह पर्व अहम है। सिख परिवारों और गुरुद्वारों सभी जगह पर बैसाखी का उत्साह देखने को मिलता है। सिख धर्म की स्थापना गुरु नानक देव जी ने की थी परंतु सिखों को ‘सिंह’ उनके दसवें गुरु, ‘गुरु गोबिंद सिंह’ जी ने सन् 1699 की बैसाखी पर बनाया था। 13 अप्रैल, 1699, बैसाखी के पर्व को ध्यान में रखते हुए गुरु जी ने विशेष समारोह के आयोजन का आदेश दिया और साथ ही संगत में यह सन्देश भी देने को कहा कि वे सबसे कुछ बात करना चाहते हैं। सन्देश पाते ही दूर-दूर से लोग आनंदपुर साहिब के ‘केशगढ़’ किले (पंजाब) में एकत्रित होना शुरू हो गए। गुरु जी के कहे अनुसार विशेष कीर्तन समारोह आरम्भ किया गया। कीर्तन समाप्त होते ही गुरु जी संगत के सामने आए और म्यान में से तलवार निकालकर कहा कि “मेरी संगत मुझे बहुत प्यारी है। आप सब यहां आए यह देखकर मुझे बहुत खुशी हुई। आप मेरा परिवार हैं, मेरी ताकत हैं, लेकिन क्या आप में से कोई ऐसा है, जो अभी, इसी वक्त मेरे लिए अपना सिर कलम करवा सकता है?” यह सुनते ही संगत में एक अजीब सा सन्नाटा छा गया। गुरु जी सिर कि कुर्बानी चाहते हैं यह जानकार सब हैरान रह गए। एक दूसरे की ओर द्केहने लगे लेकिन किसी के मुंह से एक शब्द नहीं निकला। गुरु जी फिर बोले, “क्या है कोई ऐसा मेरा प्यारा, जो मुझे अपना सिर दे सके? उस सन्नाटे में गुरु जी की आवाज़ तेजी से गूंजी लेकिन अभी भी दूसरी ओर से कोई आवाज नहीं आई। लेकिन कुछ ही क्षणों में भीड़ में से एक आवाज़ आई। वो आवाज़ थी ‘दया राम’ की। लाहौर के खत्री परिवार का दया राम गुरु गोबिंद सिंह जी का परम भक्त था। उसने कहा “जी गुरु जी, मैं आपके लिए अपनी जान कुर्बान कर सकता हूं।” गुरु जी ने उसे बुलाया और उसे तम्बू के पीछे लेकर चले गए। कुछ देर बाद वे बाहर आए लेकिन अकेले और इस बार तलवार खून से रंगी थी। यह देख संगत में बैठा एक-एक शख्स हक्का-बक्का रह गया। सभी समझ गए कि दया राम मारा गया। गुरु जी फिर बोले, “एक और कुर्बानी चाहिए, क्या है कोई गुरु का प्यारा जो आगे आ सके?” इस बार हस्तिनापुर के चमार वर्ग का धर्म दास आगे बढ़ा। गुरु जी उसे भी लेकर तम्बू के पीछे चले गए और दोबारा वही हुआ जो दया राम के साथ हुआ था। इस तरह से गुरु जी ने एक-एक करके संगत में से पांच जानें मांगी और उनके परम प्यारे अपनी जान कुर्बान करने के लिए आगे बढ़े। दया राम, धर्म दास, मोहकम चंद, हिम्मत राय और साहिब चंद, इन पांच लोगों ने गुरु जी के एक बार कहने पर अपना सिर कलम करवा लिया। लेकिन गुरु जी ने ऐसा क्यूं किया? क्यूं वे अपने ही भक्तों की जाना के प्यासे हुए थे? इस तरह के कई सवाल संगत में बैठे हर शख्स के मन में थे लेकिन कोई आगे बढ़कर गुरु जी से सवाल कर सके, इतनी हिम्मत किसी में नहीं थी। सभी बस इस बात का इन्तजार कर रहे थे कि कब गुरु जि स्वयं उन्हें इस घटना का रहस्य बताएंगेपांचवें सिर की कुर्बानी के बाद गुरु जी तम्बू से बाहर तो आए लेकिन फिर कुछ भी कहे बिना वापस अन्दर चले गए। सिख मान्यताओं के अनुसार कहा जाता है कि गुरु जी जब तम्बू के भीतर गए तो उन्होंने उन पांच सिखों पर पवित्र अमृत छिड़का और उनमें जान डाली। तम्बू के भीतर क्या चल रहा है इस बात से बाहर बैठे लोग अनजान थे, सभी उतावले हो रहे थे। मन में कई सवाल और जुबां पर बातें थीं, भीड़ कि वे जान सकें कि यहां आखिर चल बाहर बैठी भीड़ का यह उत्साह अन्दर तक सुनाई दी रहा था।
लेकिन अगले कुछ मिनटों में उन्होंने जो देखा उसे देखते ही सबने चुप्पी साध ली। किसी को भी अपनी आंखों पर विश्वास नहीं हो रहा था। केसरिया रंग के लिबास में पांच नौजवान उनके सामने खड़े थे और साथ में थे स्वयं गुरु गोबिंद। यह वही पांच नौजवान थे जिन्होंने कुछ देर पहले ही गुरु जी के कहने पर अपने सिर की कुर्बानी दी थी, लेकिन अब वे सही सलामत, सुंदर पोशाक में खड़े थे। गुरु जी ने संगत के सामने हाथ जोड़े और एक घोषणा की, “सिख धर्म को अपने पंज प्यारे मिल गए हैं। उन्होंने अपने हाथों में लोहे का एक कटोरा लिया, उसमें साफ जल (पानी) भरा और कुछ पताशे (चीनी) डालकर छोटी कटार की सहायता से उन्हें मिलाया। इस जल को उन्होंने उन पांच प्यारों को पिलाया और फिर स्वयं भी उनसे इसे ग्रहण किया। इस तरह से गुरु जी ने खालसा पंथ की स्थपाना की, सिखों को ‘सिंह’ कहलाने का दर्जा दिया। जाति, उंच-नीच के अंतर को समाप्त करते हुए सभी को बराबर कहलाने की हक दिलाया। सिख नौजवानों को ‘सिंह’ और बेटियों को ‘कौर’ की उपाधि दी। सिख मान्यतानुसार गुरु गोबिंद सिंह जी ने इन पांच प्यारों को खुद से भी बढ़कर हक दिए। ये पांच प्यारे जरूरत पड़ने पर गुरु जी को कैसा भी आदेश दी सकते थे। उनकी अनुपस्थिति में उनकी संगत और धर्म से जुड़े हर कार्य का फैसला स्वयं ले सकते थे।
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