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‘यह धार्मिक नहीं, राजनीतिक’: मजहबी आक्रामकता की बात करने पर इस्लामवादी-वामपंथी करते हैं बेतुका दावा, जानिए इस नैरेटिव के पीछे का मूल मकसद

 

जब भी कोई इस्लामी चरमपंथी या भीड़ उत्पात मचाती है तो विश्व भर के वामपंथियों की तुरंत प्रतिक्रिया होती है। पिछले कुछ दशकों से इस्लामवादियों के सबसे वफादार सेवक के रूप में सामने आए ये वामपंथी इस्लामी चरमपंथियों की करतूतों को नकारने की कोशिश करते हैं। यदि उनकी करतूतों को स्पष्ट रूप से नकारना संभव ना हो तो उसे कमजोर करने के लिए अपनी जी-जान लगा देते हैं।

बांग्लादेश में अराजकता के एक और दौर के बाद तत्कालीन प्रधानमंत्री शेख हसीना को अपने पद से इस्तीफ़ा देकर देश से भागने पर मजबूर होना पड़ा। इसके बाद से इस्लामी भीड़ द्वारा हिंदुओं को निशाना बनाया जा रहा है। हालाँकि, वामपंथी इस पर पर्दा डालने में लगे हैं। यह सब सोमवार को हुआ था और आज शुक्रवार है। जुमे की नमाज के लिए भीड़ के इकट्ठा होने के बाद वहाँ हालात और भी बदतर हो सकते हैं।

वामपंथी प्रोपेगेंडा के टूल्स

इस्लामवादियों के अपराधों को छिपाने के लिए वामपंथियों द्वारा इस्तेमाल किए जाने वाले प्रोपेगेंडा में कई तकनीकें और टूल्स शामिल हैं। पहला है इनकार। इसमें किसी भी जानकारी को दबाना और सेंसर करना शामिल है, जो उनके सुनियोजित कथानक के खिलाफ है, जैसे पीड़ित मुस्लिम होने चाहिए आदि। हालाँकि, जब से इंटरनेट खासकर सोशल मीडिया आया है, तब से यह तकनीक काम नहीं कर रहा है। तथ्य सामने आने लगे हैं।

चूँकि इनकार करना अब कठिन हो गया है, इसलिए उसे कमजोर करने के औजार महत्वपूर्ण हो गए हैं। इन औजारों में सबसे महत्वपूर्ण है ‘फैक्ट चेक’ का औजार। अब फैक्ट सामने आने लगे, इसलिए ‘फैक्ट चेकर’ बनाए गए। इसके लिए प्रोपेगेंडा फैलाने वालों को कुछ जानकारियों के दावे खोजने पड़ते हैं या फिर उन्हें षडयंत्र के रूप में प्रस्तुत करना पड़ता है, जिन्हें फर्जी या झूठा घोषित किया जा सके। इससे लोगों के मन में संदेह के बीज पड़ते हैं और इस तरह पूरा मामला ही फर्जी माना जा सकता है। यही बात एक खास तरह के ‘फैक्ट चेकर’ को प्रेरित करती है।

हालाँकि, यह तरकीब नई नहीं है। कई वकील बलात्कार पीड़ितों को बदनाम करने के लिए इसी तरह की तरकीबें अपनाते रहे हैं। उदाहरण के लिए, वकील पूछेंगे, “आपने उस सुबह लाल ड्रेस पहनी थी या हरा गाउन?”। एक पीड़ित व्यक्ति धुंधली याददाश्त के कारण गलत जवाब दे सकती है। इस तरह वकील कहेगा, “महामहिम, सीसीटीवी फुटेज में वह नीले रंग की ड्रेस में दिख रही है। वह साफ झूठ बोल रही है और कोई बलात्कार नहीं हुआ!”

अब लोग धीरे-धीरे ‘फैक्ट चेकर’ की इस प्रकृति को समझने लगे हैं। इस प्रकार, तथ्यों को कमजोर करने के अन्य उपकरण भी उतने ही महत्वपूर्ण हो गए हैं। यहीं पर वे नैरेटिव बनाने के आजमाए एवं परखे हुए टूल्स की ओर लौट रहे हैं। जैसे कि पक्षपातपूर्ण मीडिया रिपोर्ट प्रकाशित की जाएँगी, ‘प्रतिष्ठित नागरिकों’ के तथ्य-खोजी मिशन गठित किए जाएँगे, वकीलों की दलीलों या चालों को चुनिंदा रूप से तथ्य के रूप में पेश किया जाएगा (यदि मामला अदालत में हो तो)।

इतना नहीं, उसे प्रोपेगेंडा आर्ट बनाया जाएगा, इन्हें मशहूर हस्तियों एवं प्रभावशाली लोगों द्वारा आगे बढ़ाया जाएगा। यदि जरूरी हुआ तो पोर्नस्टार की भी मदद ली जाएगी। इसके अलावा, ‘विद्वानों’ द्वारा शोध पत्र प्रकाशित किए जाएँगे। क्या आप विश्वास करेंगे कि वास्तव में ऐसी भी कोई व्यक्ति है जिसने ऑपइंडिया पर एक ‘शोध पत्र’ लिखा है, ताकि इसका हवाला देकर ऑपइंडिया के विकिपीडिया पेज को खराब किया जा सके? लेकिन, यह सच है। ऐसा किया गया है।

इन सभी के खिलाफ एक साथ लड़ना भारी पड़ जाता है, क्योंकि वे मौजूदा पुराने नैरेटिव (सचमुच एक सदी से भी ज़्यादा पुरानी) पर आधारित हैं। इन नैरेटिव को अभी भी ध्वस्त किया जाना बाकी है। इसी नैरेटिव का हिस्सा है कि आज भी ‘धर्म एक निजी मामला है’ या ‘आतंकवाद का कोई धर्म नहीं होता’ जैसी बेतुकी बातें लगभग सभी सार्वजनिक वक्ताओं द्वारा बार-बार दोहराई जाती हैं।

राजनीति बनाम धर्म का तर्क

बांग्लादेश में हिंदुओं के जारी नरसंहार के मामले में ‘यह धार्मिक नहीं, राजनीतिक है’ के पुराने नैरेटिव को ही अपनाया जा रहा है, क्योंकि ‘फैक्ट चेक’ और ‘मानव श्रृंखला’ के माध्यम से अत्याचारों को नकारने का प्रयास भी काम नहीं कर रहा है।वामपंथी प्रोपेगेंडा वेबसाइट स्क्रॉल ने सबसे पहले इस सिद्धांत को आगे बढ़ाया और कहा कि हिंदुओं पर हमले धार्मिक कारणों से नहीं, राजनीतिक कारणों से हो रहे हैें।

स्क्रॉल का मत है कि वहाँ के हिंदू पारंपरिक रूप से शेख हसीना की पार्टी अवामी लीग को वोट देते हैं, इसलिए वे निशाने पर हैं। इसे नैरेटिव को कतर की मीडिया संस्थान अल जज़ीरा ने तुरंत दोहराया। अल जजीरा वर्तमान में खुद को इस्लामवादियों का सबसे अच्छा सहयोगी साबित किया है। दरअसल, अल जजीरा का एक ‘पत्रकार’ पार्टटाइम आतंकी के रूप में काम करते हुए यहूदियों को बंधक बना रहा था।

अब मैं सिर्फ़ इसे प्रकाशित करने वाले प्लेटफ़ॉर्म को बदनाम करके ‘यह राजनीतिक था, धार्मिक नहीं’ कथन को बदनाम नहीं करना चाहता, भले ही वे अवमानना ​​के अलावा किसी और चीज़ के लायक न हों। यह समझना महत्वपूर्ण है कि यह तर्क क्यों दोषपूर्ण और भयावह है, क्योंकि इसका इस्तेमाल अक्सर इस्लामी आक्रामकता (जिसमें कट्टरता, अन्याय, अत्याचार और आतंकवाद भी शामिल है) को छिपाने के लिए किया जाता है।

इस तर्क का इस्तेमाल मुगल तानाशाह औरंगजेब को एक न्यायप्रिय शासक के रूप में पेश करने के लिए किया गया है। वहीं, ऑड्रे ट्रुश्के जैसे ‘विद्वानों’ ने यह दिखाने के लिए शोध प्रबंध लिखा है कि औरंगजेब की सेना द्वारा मंदिरों को नष्ट करना वास्तव में धार्मिक कट्टरता के नग्न प्रदर्शन के बजाय एक राजनीतिक कदम था।

कश्मीर में भी इसी तर्क का इस्तेमाल इस्लामी आतंकियों की करतूतों पर पर्दा डालने के लिए किया जाता है और ये बताने की कोशिश की जाती है कि कश्मीर में ‘संघर्ष’ राजनीतिक है, ना कि धार्मिक। वहीं, ये आतंकी खुद गाय के मूत्र पीने वालों और मूर्तिपूजकों जैसे धार्मिक अपशब्दों का इस्तेमाल करते हैं।

कर्नाटक में प्रशांत पुजारी की हत्या या उत्तर प्रदेश में चंदन गुप्ता की हत्या में भी यही तर्क दिया जाता है कि उन्हें धार्मिक कारणों से नहीं, बल्कि राजनीतिक कारणों से मारा गया। इसने इस्लामी आतंकवादियों को एक बहुत ही चतुर बहाना दे दिया है, जहाँ उन्हें हिंदुओं के प्रति अपने सभी हिंसक विचारों को व्यक्त के लिए बस ‘संघी’ शब्द का उपयोग करना होता है। वहीं, उनकी धार्मिक कट्टरता को धार्मिक नहीं बल्कि “राजनीतिक” बयान की ढाल मिल जाती है।

यह तर्क खूब चलता है। कई हिंदू इसे मान भी लेते हैं, क्योंकि वे वास्तव में मानते हैं कि राजनीति और धर्म अलग-अलग क्षेत्र हैं। हालाँकि, मुस्लिम समाज में ऐसा नहीं होता। इस तरह राजनीतिक रूप से गलत यह बयान दिया जाना चाहिए, अन्यथा अधिक से अधिक हिंदुओं की हत्या की जाएगी और इस अपराध को ‘राजनीतिक हिंसा’ के रूप में छिपाया जाएगा, जबकि यह वास्तव में एक जातीय नरसंहार है।

राजनीति सिर्फ चुनावी राजनीति नहीं है

यह बिंदु इसलिए आया है, क्योंकि इस्लाम अपनी स्थापना के समय की स्थिति के सबसे करीब है। इसमें उस प्रकृति की रक्षा करने के तरीके हैं। इस्लाम को ‘सुधारने’ की कोशिश करने वाले किसी भी व्यक्ति को गैर-मुस्लिम घोषित कर दिया जाता है। इस्लामी समाज में अंबेडकर जैसा कोई व्यक्ति दूसरे दिन ही मार दिया जाता या किसी दूर देश में भगोड़ा बन जाता है, जहाँ दशकों बाद भी वह अपनी आँख खो देता।

इस्लाम के विभिन्न प्रचारकों ने इस तथ्य पर गर्व किया है कि यह एक ‘पूर्ण धर्म’ है। यह ठीक वैसे ही है, जैसा मार्क्सवादी अपनी विचारधारा के बारे में मानते हैं, जिसका उनके जीवन के हर पहलू पर प्रभाव पड़ता है। ‘हलाल अर्थव्यवस्था’ का कारण भी ठीक यही है। हालाँकि, अभी भी लाखों हिंदू ऐसे हैं, जो सोचते हैं कि हलाल खाना पकाने या वध करने का तरीका है, न कि एक समानांतर आर्थिक प्रणाली।

यही कारण है कि जो सवाल हिंदुओं को सामान्य लगते हैं, वे विभिन्न फतवों का विषय बन जाते हैं। बांग्लादेश को भूल जाइए, बस अपने देश में देवबंद की वेबसाइट देखिए। क्या इस्लाम में मोबाइल फोन पर गेम खेलना जायज़ है? क्या मुझे उस लड़की से डेट करना चाहिए, जो जींस पहनती है? क्या मेरी बहन को एयर होस्टेस की नौकरी करनी चाहिए? और भी बहुत कुछ है। एक हिंदू को ऐसी बातें मज़ेदार लग सकती हैं, लेकिन ये आपकी सोच से ज़्यादा करीब हैं।

सिर्फ़ इस्लामी उपदेशक ही नहीं, बल्कि एक औसत मुसलमान भी इस्लाम को एक संपूर्ण और आदर्श धर्म मानता है और उस पर गर्व करता है। दूसरी ओर, हिंदू इस बात पर गर्व करते हैं कि हिंदू धर्म एक ऐसा धर्म है जहाँ कुछ भी अनिवार्य नहीं है, यह एक जीवन जीने का तरीका है, जहाँ आप अपनी सुविधा के अनुसार चुनाव कर सकते हैं। इन दावों को इस्लामी नज़रिए से घृणा और उपहास दोनों के साथ देखा जाता है।

संक्षेप में, राजनीति या राजनीति या लोगों को अपने मामलों को सामूहिक रूप से कैसे प्रबंधित करना है, इस बारे में विचारधारा और आस्था इस्लाम का एक अभिन्न अंग है। अन्यथा, आप ऐसा क्यों सोचते हैं कि जैसे ही किसी क्षेत्र में मुसलमान बहुसंख्यक हो जाते हैं, वहाँ की भूमि का हर टुकड़ा इस्लामी राष्ट्र बन जाता है। यानी संविधान और कानून वहाँ कुरान और हदीस से प्रेरित हो जाते हैं।

भारत में ऐसे अनेकों उदाहरण हैं, जहाँ पर्याप्त मुस्लिम आबादी वाले क्षेत्र में शुक्रवार को छुट्टी घोषित की गई (वैसे यह एक ‘राजनीतिक’ निर्णय है, जिस पर स्थानीय प्रशासन निर्णय लेता है)। ये सब इसलिए होता है, क्योंकि इस्लाम में राजनीति और धर्म अलग-अलग चीजें नहीं हैं। राजनीति को आस्था के अधीन माना जाता है। यह कोई दोष नहीं है, बल्कि इस्लाम की विशेषता है। यह आलोचना नहीं है, बल्कि वास्तव में इस्लाम की प्रशंसा है (इस्लामी दृष्टिकोण से ही)।

इस प्रकार, जब इस्लाम की बात आती है तो यह पूरा तर्क कि ‘यह धर्म से नहीं बल्कि राजनीति से प्रेरित था’ बेकार हो जाता है, खासकर तब जब आप गैर-मुसलमानों से निपट रहे हों। आप यह तर्क तभी दे सकते हैं, जब आप मामले के तथ्यों को छिपाना चाहते हों। आप ऐसा तभी कर सकते हैं, जब आप बेईमान या पापी हों, या फिर दोनों हों। इसलिए कोई भी रिपोर्ट, ऐतिहासिक विवरण या लेख, जो इसे केंद्रीय तर्क बनाता है – चाहे वह औरंगजेब, कश्मीर, बांग्लादेश या कहीं भी हो – उसे हमेशा के लिए कूड़ेदान में डाल दिया जाना चाहिए।

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